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action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home4/twheeenr/public_html/wp-includes/functions.php on line 6114The post पेट चीरकर केमिकल डाला, कई अंग खराब किए:13 साल पाकिस्तानी सेना का टॉर्चर झेला, लौटा तो नौकरी गई appeared first on The News Express.
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‘मैं भारतीय जासूस था।’
‘13 साल पाकिस्तान की जेल में काटे, पाकिस्तान की आर्मी के टॉर्चर सहे।’
‘मुझे ऐसा खतरनाक केमिकल पिलाया, जिसका दर्द आज तक भोग रहा हूं।’
ये कहना है कोटा के बोरखेड़ा में रहने वाले 75 साल के महमूद अंसारी का। अंसारी का दावा है कि उन्होंने भारत के लिए पाकिस्तान में जासूसी की। तीन बार बॉर्डर पार किया। पकड़े गए तो 13 साल पाकिस्तान में जेल काटी, टॉर्चर सहा।
1989 में लौटे तो भारतीय डाक विभाग में उनकी नौकरी चली गई। कॉम्पेनसेशन पाने के लिए 32 साल संघर्ष करना पड़ा। हाल में ही 12 सितंबर को अंसारी का नाम तब चर्चा में आया, जब सुप्रीम कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए डाक विभाग को 10 लाख रुपए कॉम्पेनसेशन देने के निर्देश दिए हैं।
क्या महमूद अंसारी सच में भारतीय जासूस थे?
इस सवाल का जवाब जानने के लिए भास्कर टीम उनके घर पहुंची। काफी समझाने के बाद वे हमने बात करने को राजी हुए, लेकिन उससे पहले उन्होंने अपने वकील से बात की। इसके बाद उन्होंने हमें कोर्ट केस से जुड़े दस्तावेज दिखाने से साफ इनकार कर दिया।
कैमरा ऑन हुआ तो उन्होंने जासूस बनने, पाकिस्तान में घुसने और वहां से लौटने की पूरी कहानी बताई।
फील्ड ऑफिसर ने देश हित में काम करने को कहा
मेरा नाम महमूद अंसारी है। 1966 में मेरी डाक विभाग में नौकरी लगी थी। पहली पोस्टिंग कोटा के बोरखेड़ा में ही मिली। 8 साल बाद 1974 में मेरा जयपुर ट्रांसफर हो गया। स्थानीय अधिकारियों से पूछा तो उन्होंने बताया कि मेरे तबादले के आदेश ऊपर से आए हैं।
जयपुर जॉइनिंग लेने के एक साल बाद मेरे पास SBI (स्पेशल ब्यूरो ऑफ इंटेलिजेंस), जिसे आज RAW (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) कहते हैं, के एक फील्ड ऑफिसर का फोन आया। उसने अपनी पहचान बताई और मिलने के लिए बुलाया। मैं मिलने गया तो उस फील्ड ऑफिसर ने मुझे देश हित में काम करने के लिए कहा।
फील्ड ऑफिसर के पास मेरी पूरी डिटेल थी। उसे पता था कि मेरे कुछ रिश्तेदार पाकिस्तान में रहते हैं। उसने मुझे पाकिस्तान जाकर जरूरी सूचनाएं इकट्ठा करने के लिए कहा। पाकिस्तान से आने वाले लेटर की वजह से नजर में आया
मेरे छोटे नाना (नाना के भाई) कराची में रहते थे। वहां से मेरे लिए जब भी पत्र आते तो CID वालों की नजर से होकर आते थे। डाक विभाग के RMS डिपार्टमेंट (Railway Mail Service) में बाहर से आने वाले पत्रों की छंटाई की जाती थी, ताकि किसी भी संदिग्ध पर नजर रखी जा सके।
उस वक्त भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध हो चुका था, ऐसे में भारतीय एजेंसियां ज्यादा अलर्ट थीं। पाकिस्तान से आने वाले पत्रों की वजह से मैं इंटेलिजेंस की नजर में आया और उन्होंने मुझे एजेंट बनाने के लिए चुना। जब मैंने डाक विभाग की नौकरी के बारे में पूछा तो फील्ड ऑफिसर ने भरोसा दिलाया कि वह सब संभाल लेंगे। फील्ड ऑफिसर ने पार कराया बॉर्डर
एजेंसी के फील्ड ऑफिसर ने ही मुझे अनूपगढ़ से होते हुए भारत-पाक बॉर्डर पार कराया। वहां एक गाइड मिला, न मैं उसे मेरा नाम बता सकता था और न उसका नाम-पता पूछ सकता था। उसने जीरो लाइन से पहले बॉर्डर पार कराया और एक कस्बे के पास सड़क पर छोड़ गया।
वहां से बस पकड़कर मैं पाकिस्तान के गांव चिश्तिया पहुंचा और वहां से ट्रेन के जरिए कराची। जैसे भारत में आज आधार कार्ड चलता है, वैसे उस वक्त पाकिस्तान में शिनाख्त कार्ड चलता था। मैंने कई बार वो कार्ड बनवाने की कोशिश की। नाना के साथ आर्मी कैंप में जाता
मेरे छोटे नाना कराची में दर्जी का काम करते थे। उनके पास आर्मी अधिकारियों और जवानों की वर्दी और कपड़े सिलने के ऑर्डर आते थे। मैं जब भी पाकिस्तान जाता, नाना के साथ आर्मी कैंप में आराम से आता-जाता।
पहले दो बार जब गया तब तो केवल इधर-उधर घूमा और आर्मी कैंप की जानकारी जुटाई। दूसरी बार में एक शिपयार्ड पर गया, लेकिन वहां पर लोगों के आई कार्ड चेक किए जा रहे थे। मुझे लगा कहीं पकड़ा न जाऊं, इसलिए वापस आ गया। तीसरी बार पाकिस्तान गया तो नाना के साथ कई अफसरों के पास भी गया और कई जानकारियां हासिल कीं।
साल में तीन बार गया पाकिस्तान, आखिरी बार पकड़ा गया
मैं 1976 में तीन बार पाकिस्तान गया। पहली और दूसरी बार गया, तब की तारीख याद नहीं है। पहली बार 3-4 दिन और दूसरी बार 8-10 दिन वहां रहा। तीसरी बार 1 दिसंबर को गया था। मैंने पाकिस्तानी आर्मी के कई सीक्रेट हासिल कर लिए थे, लेकिन 22 दिसंबर को लौटते हुए पकड़ा गया।
जो गाइड मुझे लेकर आ रहा था, वो डबल एजेंट निकला। 22 दिसंबर को हम कराची से वापस आने के लिए निकले थे, लेकिन बॉर्डर के पास गाइड मुझे छोड़कर भाग गया।
बॉर्डर पार फोर्ट अब्बास के पास पाकिस्तानी पोस्ट के सैनिकों ने मुझे पकड़ लिया। 2 साल तक मैं आर्मी इंटेलिजेंस की कस्टडी में रहा। रोज मुझसे पूछताछ होती, इंडियन आर्मी के बारे में जानकारी लेने की कोशिश करते, लेकिन मैंने कुछ नहीं बताया। इन्फॉर्मेशन निकालने के लिए मुझे बहुत टॉर्चर किया गया। मियांवाली जेल से भाग गए थे 5 जासूस
1978 में मुझे मियांवाली जेल में ले जाया गया, वहां कई इंडियन ऐसे भी थे जो जासूसी के आरोप में कैद थे। मेरे वहां शिफ्ट होने से पहले ही 5 जासूस जेल फांद कर भाग गए थे। पहले जेल की दीवारें भी कच्ची थीं, लेकिन इस घटना के बाद सिविल जेल में सभी कैदियों को बेड़ियों में बांधकर रखा जाने लगा। दीवारें भी पक्की कर दी गईं।
खतरनाक केमिकल के कारण दोबारा पिता नहीं बन पाया
पाकिस्तान की इंटेलिजेंस ने इंडियन आर्मी के सीक्रेट जानने के लिए तरह-तरह से टॉर्चर किया। ऐसा खतरनाक केमिकल पिलाया, जिसका दर्द आज तक भोग रहा हूं। दोबारा कभी पिता नहीं बन पाया। कई ऑर्गन खराब हो गए।
1976 में पाकिस्तान गए थे, तब बेटी फातिमा 11 महीने की थी। अब बेटी के भरोसे जीवन काट रहा हूं। पत्नी वहीदन भी बीमार रहती है।
13 साल की सजा में बदली उम्रकैद
23 दिसंबर 1976 को जब मुझे गिरफ्तार किया गया, तब पाकिस्तान में सैन्य शासन था और इस तरह की एक्टिविटी में सेना का कानून ही लागू होता था। मेरा कोर्ट मार्शल किया गया। ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट, 1923 (पाकिस्तान का कानून) की धारा 3 के तहत मुकदमा चला। पहले उम्रकैद हुई, लेकिन बाद में अपील करने पर उसे 13 साल की सजा में बदल दिया गया। सजा पूरी होने के बाद भी 2 साल दूतावास में रखा
मियांवाली जेल के बाद मुझे बहावलपुर जेल में शिफ्ट किया गया। यहां पर ज्यादातर सिख और बंगाल के कैदी थे। सबको पाकिस्तानी कैदियों से अलग रखा गया था। उस बैरक का नाम फॉरेन बैरक था। वहां हमें कच्ची सामग्री दी जाती थी, खाना हमें खुद बनाना होता था।’
मेरी सजा पूरी हो गई थी, इसके बावजूद मुझे नहीं छोड़ा गया तो जेल अधीक्षक से पत्र लिखने की इजाजत मांगी। इजाजत मिली तो एक बेनाम पत्र के जरिए पंजाब हाईकोर्ट की बहावलपुर बेंच में अपील की। जिसके बाद रिहाई का रास्ता साफ हुआ। जेल से 1987 में रिहा कर दिया गया, लेकिन इसके बाद भी 2 साल तक दूतावास में ही रखा गया।
भारत लौटा तो पता चला नौकरी चली गई
1989 में रिहा होने के बाद वाघा-अटारी बॉर्डर के जरिए भारत लौटा। लौटकर नौकरी के लिए अधिकारियों से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि 31 जुलाई 1980 को ही मेरी सेवाएं समाप्त कर दी गई थीं। मैंने प्रशासनिक न्यायाधिकरण और राजस्थान हाईकोर्ट में भी अपील की, लेकिन याचिका खारिज कर दी गई। इसके बाद 2018 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
मेरी कहानी को काल्पनिक बताया
सुप्रीम कोर्ट में सरकार की तरफ से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल विक्रमजीत बनर्जी ने मेरे दावे को काल्पनिक कहानी करार दिया। उन्होंने दावा किया कि मुझे आखिरी बार 19 नवंबर 1976 को पेमेंट की गई थी। 1977 के बाद से मैंने अपनी सैलरी नहीं ली है।
कोर्ट ने उनसे पूछा कि अंसारी को पोस्टऑफिस की नौकरी से इतनी लंबी छुट्टी क्यों दी गई? कोर्ट ने उनसे इस दावे के खंडन के लिए जरूरी दस्तावेज भी पेश करने को कहा कि अंसारी को पाकिस्तान में ऑपरेशन के दौरान पहले भी छुट्टी दी गई थी। इस पर ASG ने कहा कि 40 साल पुराने रिकॉर्ड को पाना बहुत मुश्किल है। सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनीं। इसके बाद CJI यूयू ललित ने मेरे पक्ष में फैसला सुनाया। पहले तो सरकार को 5 लाख रुपए की अनुग्रह राशि देने को कहा। बाद में जब मेरे वकील ने कहा कि मेरी उम्र 75 साल है और आय का कोई स्रोत भी नहीं है तो राशि बढ़ाकर 10 लाख रुपए कर दी गई।
अंसारी के वकील समर विजय ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पाकिस्तान के मिशन को लेकर कोई जिक्र नहीं किया है। यह केवल बहस का हिस्सा था। भारतीय डाक विभाग को कॉम्पेनसेशन देने का आदेश सुनाया है।
…और एक दावा : अभी भी पाकिस्तान में हैं युद्ध बंदी
महमूद अंसारी ने भास्कर से बातचीत में दावा किया कि 1971 के युद्ध के दौरान जो भारतीय सैनिक बंधक बनाए गए थे, उनमें से कई अभी भी पाकिस्तान की जेलों में कैद हैं। अंसारी ने बताया कि पाकिस्तान हमेशा जेलों और आर्मी की कस्टडी में इन सैनिकों के होने से इनकार करता रहा है। हकीकत में बंधक बनाए गए सैनिकों को रावलपिंडी फोर्ट में रखा जाता था। जहां से कोई इन्फॉर्मेशन बाहर नहीं दी जाती।
कैसे बनाए जाते हैं जासूस?
इसका कोई ऑफिशियल जवाब नहीं है, क्योंकि कोई भी देश यह बात कभी नहीं मानता कि वो दूसरे देश में जासूसी कराता है। फिर भी विभिन्न रिपोट्र्स पर गौर करें तो एक ही बात सामने आती है कि ज्यादातर देश किसी को जासूस बनाने और मिशन पर भेजने के लिए एक जैसा ही तरीका अपनाते हैं।
ऐसे लोगों की तलाश की जाती है, जिनकी दूसरी देश में रिश्तेदारी हो। बातचीत, रहन-सहन का तरीका एक जैसा हो, ताकि किसी को कोई शक न हो।
ऐसे लोगों को कन्विंस करने के लिए उन्हें सुरक्षा एजेंसियां अपने पैसे और सुरक्षित भविष्य का लालच देती हैं। कोई नहीं मानता तो उसे देश की सुरक्षा का हवाला देकर कन्विंस किया जाता है। ज्यादातर मामलों में जो पैसे से कन्विंस नहीं होते, वे लोग देश के लिए कुछ कर गुजरने के जज्बे के कारण मान जाते हैं।
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