बिना कपड़ों के रखते, सिर मुंडवाते,मेंटल हॉस्पिटल में महिला मरीजों से गाली-गलौच, यौन शोषण; बिजली के झटके देते

वह मानसिक तौर पर अस्वस्थ हुईं, तो उनका परिवार उन्हें एक मेंटल हॉस्पिटल में छोड़कर चला गया। पलटकर कोई खोज-खबर लेने तक नहीं आया। कुछ साल इलाज के बाद वह ठीक हो गईं। 1990 के दशक में उन्हें डिस्चार्ज के लिए फिट घोषित कर दिया गया। लेकिन, उन्हें अगस्त 2013 तक हॉस्पिटल में ही रहना पड़ा, क्योंकि जिस परिवार को उन्होंने कभी पाला था, वही उन्हें पूरी तरह से भूल चुका था। रहने के लिए उनके पास कोई दूसरा ठिकाना नहीं था। ठीक होने के 20 साल बाद भी उनकी जिंदगी मेंटल हॉस्पिटल में ही बीती।

2016 में तिरुवनंतपुरम के पेरूर्कादा स्थित मेंटल हेल्थ इंस्टीट्यूट की खबर चर्चा में रही, जहां 150 महिला मरीजों को ठीक होने के बाद भी रहना पड़ रहा था, क्योंकि उन्हें उनके परिवार वाले छोड़ चुके थे।

इसी तरह, झारखंड के रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो-साइकेट्री एंड एलाइड साइंसेज (RINPAS) को एक बार ऐसे ही 98 मरीजों की लिस्ट तैयार करनी पड़ी, जिन्हें उनका परिवार छोड़ चुका था। दिल्ली के IHBAS में भी ऐसे मामले सामने आ चुके हैं।

इस बीमारी का सबसे भयावह पहलू ये है कि मेंटल हॉस्पिटल्स में भर्ती की जाने वाली 4 महिलाओं में से 1 महिला को उनका परिवार कभी वापस घर ले जाने नहीं आता।

राष्ट्रीय महिला आयोग और निम्हैंस ने 2016 में देश के 10 मानसिक अस्पतालों में एक स्टडी की। जिसमें पता चला कि 23.7 फीसदी महिला मरीज ठीक होने के बाद भी 10 साल से ज्यादा समय से मेंटल अस्पतालों में बेसहारा पड़ी हैं।

इन अस्पतालों में रह रहीं 60 फीसदी महिलाएं शादीशुदा हैं और 30 फीसदी होममेकर हैं। दक्षिण से लेकर उत्तर और पूरब से पश्चिम तक, देश का शायद ही कोई मेंटल हॉस्पिटल हो, जहां ऐसी महिलाएं न हों, जिन्हें उनका परिवार छोड़ चुका है।

घरवाले जब महिलाओं को भर्ती कराने आते हैं, तब अपना नाम-पता गलत लिखवा जाते हैं। जिससे महिलाओं को उनके घर पहुंचाना कठिन हो जाता है। मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल्स के मुताबिक भारत में मानसिक समस्याओं से जूझ रहीं महिलाओं को बेसहारा छोड़ देना आम बात है।

अस्पताल कहते हैं कि इन महिलाओं में बीमारी का कोई नामोनिशान तक नहीं बचा है। ये महिलाएं वापस घर जाना चाहती हैं। लेकिन, अपनों के इंतजार में उनकी आंखों का सूनापन बढ़ता जाता है।

साइकेट्रिस्ट बताते हैं कि कई बार तो घरवाले इन महिलाओं को किसी लंबी दूरी की ट्रेन में बैठा देते हैं, मंदिर या फिर किसी दूसरे शहर में छोड़कर चले जाते हैं।रिसर्चर्स के मुताबिक करीब 30 से 40 फीसदी मरीज खुद इलाज के लिए अस्पताल जाते हैं। काफी मरीजों को पुलिस मेंटल हॉस्पिटल तक पहुंचाती है, जो सड़कों पर भटकते मिलते हैं।

अगर पुलिस को लगता है कि वे खुद को या दूसरों को नुकसान पहुंचा सकते हैं या फिर अपनी देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं, तो उन्हें इलाज के लिए अस्पताल और शेल्टर होम भेज दिया जाता है।

इनमें बड़ी संख्या महिलाओं और लड़कियों की होती है। माना जाता है कि पुरुषों की तुलना में उन्हें सुरक्षा की ज्यादा जरूरत है। इसलिए कई बार तो जबर्दस्ती उन्हें अस्पतालों में भर्ती करा दिया जाता है। इलाज के नाम पर जबर्दस्ती अस्पतालों में भर्ती की गईं इन महिलाओं और लड़कियों के साथ वहां जानवरों से भी बदतर बर्ताव किया जाता है। वहां पहुंचते ही उनके शोषण का सिलसिला शुरू हो जाता है।

ह्यूमन राइट्स वॉच की रिसर्च बताती है कि साइकोलॉजिकल और इंटेलेक्चुअल डिसएबिलिटीज की शिकार इन महिलाओं को वहां उत्पीड़न झेलना पड़ता है। मेंटल हॉस्पिटल में भर्ती महिलाओं के प्रेग्नेंट होने के मामले भी सामने आए हैं। एक बार ये महिलाएं इन इंस्टीट्यूट्स में पहुंच जाती हैं, तो फिर उन्हें लंबे समय तक वहां बंद रहना पड़ता है।

गंदगी भरे माहौल में वह पड़ी रहती हैं, जहां उनकी कोई देखभाल नहीं होती। छोटी-छोटी गलतियों पर, बात न मानने या फिर दवा न खाने पर भी निर्दयता से पिटाई की जाती है।

बीमार लड़कियों से करवाए जाते हैं काम

ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपनी स्टडी में पाया कि कई इंस्टीट्यूट्स में स्टाफ मरीजों से अपने घरेलू काम करवाता है। जो लड़कियां ज्यादा बीमार नहीं होती हैं, कर्मचारी उनसे खाना बनवाने, बर्तन साफ करवाने, कपड़े धुलवाने जैसे काम करवाते हैं।

वे पढ़ने नहीं जा पाती हैं। कई जगह उन्हें ट्रेनिंग देने के नाम पर बतौर हेल्पर सेवाएं ली जाती हैं, लेकिन इसके बदले कोई भुगतान नहीं किया जाता। रिसर्च में यह भी पता चला कि महिला मरीजों से इलाज के तौर-तरीकों के लिए कोई सहमति नहीं ली जाती है। नियम के खिलाफ इलेक्ट्रोकन्वल्सिव थेरेपी (ECT) का इस्तेमाल किया जा रहा है। इलेक्ट्रोकन्वल्सिव थेरेपी यानी ईसीटी को शॉक थेरेपी भी कहते हैं। इसमें मरीज को एनेस्थिसिया देकर सुला दिया जाता है। फिर उसके सिर पर इलेक्ट्रोड्स रखकर नियंत्रित तरीके से करंट के हल्के झटके दिए जाते हैं। इससे मरीज के दिमाग की रासायनिक गतिविधियों में बदलाव आता है। डिप्रेशन के लक्षण कम होने लगते हैं।

हिंसक और आत्महत्या की प्रवृत्ति वाले मरीजों के साथ ही कर्मचारी उन नए मरीजों को भी बिजली के झटके दे देते हैं, जिन मरीजों को संभालना उनके लिए कठिन होता है। अक्सर खाने-पीने की चीजों में दवाएं मिलाकर मरीजों को दी जाती हैं और उन्हें इसके बारे में पता भी नहीं होता है। यह नियमों और एथिकल प्रैक्टिस के खिलाफ है।

इस बारे में एक्सपर्ट्स का कहना है कि भारत में इलाज के लिए मरीज की सहमति जरूरी है। लेकिन, देश में संसाधन नहीं हैं। इलाज करने वाले एक्सपर्ट्स से लेकर कर्मचारियों तक की कमी है। मरीजों के परिवार में भी जागरूकता नहीं होती। ऐसे में कभी-कभी नियमों का पालन करना कठिन हो जाता है।

दूसरी तरफ, सामान्य अस्पतालों में इन मरीजों के इलाज पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

निम्हैंस के एक प्रोफेसर ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित निम्हैंस की एक मरीज को ICU में भर्ती करने के दौरान ऐसी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा। बाद में उसकी मौत हो गई।

अब सवाल उठता है कि आखिर इन महिला मरीजों को उनके परिवार वाले छोड़ क्यों देते हैं और फिर पलटकर कभी नहीं आते, आइए जानते हैं इस सवाल का जवाब।

मानसिक तौर पर बीमार महिलाओं को क्यों छोड़ देता है परिवार

एक्सपर्ट बताते हैं कि अगर मरीज कोई पुरुष है तो उसकी देखभाल उसकी मां, बहन या पत्नी करती हैं। लेकिन, मरीज महिला हो तो उसके साथ उल्टा व्यवहार होता है।

उन्हें घर में किसी काम का नहीं समझा जाता और वे बोझ मानी जाने लगती हैं। यही वजह है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं ज्यादा छोड़ी जाती हैं।

राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से अधिकतर महिला मरीजों को उनके परिवार सोशल स्टिग्मा के चलते छोड़ देते हैं। सोसायटी आज भी मानसिक समस्याओं से जूझ रहे लोगों को अजीब नजरों से देखती है।

कभी-कभी घर में जगह की कमी, मरीजों की देखभाल करने वालों की ज्यादा उम्र, पैसों की कमी और महंगा इलाज जैसी वजहें भी इसके लिए जिम्मेदार होती हैं। एक्सपर्ट्स का कहना है कि यह जरूरी नहीं है कि महिलाओं को छोड़ देने के हर मामले में परिवार ही दोषी हो। सरकारें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया नहीं करा सकी हैं। रिकवरी के बाद बाहर की दुनिया में नहीं बचती जगह

इलाज से ठीक हो जाने के बाद भी इन महिलाओं में बाहर की दुनिया में कदम रखने का आत्मविश्वास नहीं आ पाता है। ऐसे में उन्हें सरकारी या प्राइवेट संस्थाओं के शेल्टर होम भेज दिया जाता है। बाहर के लोग भी उन्हें नहीं अपनाते हैं। उनके साथ भेदभाव भी होता है।

महिलाएं एंग्जायटी और डिप्रेशन की शिकार पुरुषों से ज्यादा

पुरुषों की तुलना में महिलाएं एंग्जायटी और डिप्रेसिव डिसऑर्डर का शिकार ज्यादा होती हैं। देश के 2·7% पुरुष और 3·9% महिलाएं डिप्रेशन का शिकार हैं। इसी तरह, 2·7% पुरुष और 3·9% महिलाएं एंग्जायटी से जूझ रही हैं। डिप्रेशन, एंग्जायटी और ईटिंग डिसऑर्डर जैसी मानसिक समस्याओं की शिकार महिलाएं ज्यादा होती हैं। लैंसेट जर्नल पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को डिप्रेशन का खतरा दोगुना तक रहता है।

पुरुष और स्त्री दोनों ही स्ट्रेस का सामना करते हैं, लेकिन पुरुष पैसा, पावर और प्रशंसा जैसी चीजों के बूते अपने तनाव से निपट लेता है। वहीं, महिलाओं के पास आमतौर पर ये सुविधाएं नहीं होती हैं।

पीरियड्स की वजह से महिलाओं को मूड स्विंग और व्यवहार में बदलाव की शिकायत जिसके कारण एंग्जायटी, टेंशन, माइग्रेन, उदासी, ध्यान भटकने जैसी कई समस्याएं हो सकती हैं।

प्रेग्नेंसी और डिलीवरी के बाद भी महिलाओं को डिप्रेशन और दूसरी मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। सेक्शुअल और फिजिकल एब्यूज के कारण भी लड़कियां डिप्रेशन और एंग्जायटी का शिकार हो सकती हैं। वयस्क होने की तरफ कदम बढ़ा रहीं लड़कियों पर घर की जिम्मेदारियां, पढ़ाई में बाधा, असुरक्षित माहौल जैसे कारण उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

बचपन में सेक्शुअल एब्यूज और महिलाओं के पार्टनर के जबर्दस्ती संबंध बनाने के कारण भी वे डिप्रेशन और एंग्जायटी का शिकार पुरुषों की तुलना में ज्यादा होती हैं।

ड्रग्स और अल्कोहल का सेवन करने वाली महिलाओं के यौन उत्पीड़न और मानसिक समस्याओं का शिकार होने का खतरा दूसरी महिलाओं की तुलना में ज्यादा होता है।

यूनाइटेड नेशंस की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में करीब 66 फीसदी शादीशुदा महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं। 15 से 49 साल की 70% शादीशुदा महिलाएं मारपीट, रेप झेलती हैं और उन्हें न चाहते हुए भी शारीरिक संबंध बनाने पड़ते हैं।

इंडियन जर्नल ऑफ साइकेट्री की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में महिलाएं सबसे ज्यादा कन्या भ्रूणहत्या, घरेलू हिंसा, दहेज हत्या और उत्पीड़न, शारीरिक-मानसिक शोषण, सेक्शुअल ट्रैफिकिंग का सामना करती हैं। बच्चों को जन्म देना, पालना उनकी जिम्मेदारी माना जाता है। बेटे न होने पर भी उनकी पिटाई की जाती है और गर्भपात करा दिया जाता है। मानसिक परेशानी महसूस हो तो एक्सपर्ट से मिलें

साइकेट्रिस्ट डॉ. राजीव मेहता कहते हैं कि अगर खुद को या अपने आसपास के किसी और व्यक्ति के व्यवहार में बदलाव दिखे और मानसिक परेशानी महसूस हो, तो बिना झिझक काउंसलर या साइकोलॉजिस्ट से मिलें। आमतौर पर शुरुआत में लोग अनदेखी करते हैं। जब तक लोग लक्षण पहचानते हैं, समस्या गंभीर हो चुकी होती है। ऐसे में दवाओं का रोल बढ़ जाता है

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