झुग्गी-झोपड़ी से अमेरिका पहुंची,पापा स्कूल नहीं भेजते, जहर खाने की धमकी देते; 32 लाख का फ्लैट गिफ्ट किया तो उनके आंसू नहीं थमे

चंडीगढ़ का बापूधाम स्लम एरिया। पता जानते ही लोग मुंह फेर लेते। मानो मेरे चेहरे पर चोर उचक्का लिखा हो। ऊपर से पापा का अलग ही खौफ। कॉलेज जाने लगी तो पापा ने खाना-पीना छोड़ दिया। नौकरी लगी तो जहर खाने की धमकी दे दी, लेकिन मैं तय कर चुकी थी कि गरीब पैदा हुई हूं, पर गरीब मरना नहीं है।

जब 40 हजार रुपए कमाकर पापा को दिए, तो उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि बेटियां भी काम की होती हैं। जब 32 लाख का फ्लैट खरीदा और पापा को उसकी चाबी दी, तो वे इमोशनल हो गए, उनकी आंखों से आंसू रुक ही नहीं रहे थे। आज मेरे पास सबकुछ है। स्लम के फूटपाथों से निकलकर अमेरिका घूम चुकी हूं।

चलिए अब आपको अपनी कहानी बताती हूं….

मैं रुचि जायसवाल, 26 साल की हूं और चंडीगढ़ के पास जीरकपुर में रहती हूं। बचपन चार बहनों और एक भाई के साथ बापूधाम में बीता। पापा छोटा-मोटा काम करते थे। कभी चलता था, कभी नहीं भी।

ऊपर से लोगों के ताने। प्राइवेसी नाम की तो कोई चीज ही नहीं थी। जिसका जब मन होता, घर चला आता; जो मन में आता, बोलकर चला जाता।

पर मेरे अंदर एक चीज थी कि मुझे इस स्लम से बाहर निकलना है। 2008 की बात है। मैं अपने स्लम के पास के स्कूल में पढ़ती और हैंडबॉल भी खेलती। मेरा हैंडबॉल के लिए नेशनल टीम में सिलेक्शन हो गया। मुझे छत्तीसगढ़ जाना था। पापा को बताया तो उन्होंने साफ मना कर दिया। उनके ऊपर खुद से ज्यादा रिश्तेदारों का असर था। उन लोगों ने ही पापा से कहा कि घर की बेटी को बाहर नहीं जाने दो। ये नेशनल खेलना बड़े घर की बेटियों का काम है। हमारे घर की बेटी बाहर जाएगी तो इज्जत की ऐसी-तैसी हो जाएगी।

मैंने भी तय कर लिया था कि मुझे वहां जाना है। मैं भी तो देखूं कि बड़े घर की लड़कियां कैसे नेशनल खेलती हैं। पापा ने तो साफ कह दिया कि एक पैसा नहीं दूंगा, देखते हैं कैसे जाती हो। खैर मैं बिना पापा की मर्जी के निकल पड़ी छत्तीसगढ़ के लिए। रहना-खाना फ्री था, इसलिए पैसे की कोई खास दिक्कत नहीं हुई। पापा के साथ ये मेरी पहली बगावत थी।

इसके बाद तो बगावत का सिलसिला चलता रहा। जब भी कहीं बाहर जाने का मौका होता, घर में कलह मच जाती, लेकिन मैं भी अपने इरादे से टस से मस नहीं हुई। कई बार नेशनल खेलने गई। पांच बार मेडल भी जीता। 2012 की बात है। मैं और दीदी 10वीं पास कर चुके थे। घर के लोगों को लगता था कि बेटी 10वीं पढ़ चुकी, बस हो गया, इससे आगे पढ़ने की जरूरत नहीं। दोनों बहनों ने पापा से कहा कि हमें 12वीं तो कम से कम करने दीजिए। बहुत मिन्नतें करने के बाद आखिरकार पापा मान गए।

12वीं बाद मेरे दिमाग में यह बात घूमने लगी कि अब कैसे भी करके कुछ पैसे कमाना है। इस गरीबी से बाहर निकलना है। दरअसल गरीबी बताती नहीं है, लेकिन महसूस बहुत कुछ करवाती है।

जब भी हम किसी दोस्त के घर जाते या स्कूल में कोई पूछता कि कहां रहते हो, मैं कहती कि बापूधाम में, तो उसका बात करने का नजरिया ही बदल जाता। उन्हें लगता कि हम चोर-उच्चके हैं। ऐसा लगता था कि जैसे बापूधाम में रहना गुनाह हो। हम दोनों बहनें कॉलेज जाना चाहती थीं। इधर घर में मेरी बहन की शादी की बातें हो रही थीं। मेरे साथ की कई लड़कियों की शादी हो भी गई थी। मुझे लगा कि बहन की शादी हो गई, तो उसके बाद तो मेरा ही नंबर है। पता नहीं कैसा लड़का मिलेगा, सारी जिंदगी गरीबी में ही चली जाएगी। शादी, उसके बाद बच्चे और घर गृहस्थी।

मुझे लगा कि अभी नहीं तो कभी नहीं। मैंने पापा से कहा कि मुझे कॉलेज जाना है। वो मुझसे कहने लगे कि तुझे पता है कि तू क्या कह रही है?

मैंने कहा कि हां अच्छी तरह से पता है कि क्या बोल रही हूं। पापा ने कहा कि कॉलेज तो कोई खानदान की लड़की नहीं गई। उन्होंने खाना-पीना छोड़ दिया। इमोशनल ब्लैकमेलिंग होने लगी। घर का माहौल जहरीला हो गया। मुझे घुटन होने लगी। मुझे लगता था कि शादी करना जीवन का अंत होगा। दिन-रात दिमाग में एक ही बात रहती कि पापा कैसे मानेंगे.. कैसे मानेंगे।

पापा ने फिर एक और हथकंडा अपनाया कि कॉलेज जाओगी तो पैसे नहीं दूंगा, फीस नहीं दूंगा। मैंने चुप्पी साध ली। मैंने सोचा कि यह कोई बड़ी बात नहीं है, पैसे कमाकर फीस निकाल सकती हूं। अपनी एक सहेली से बात की, उसकी बहन कॉल सेंटर कंपनी में काम करती थी। उसके जरिये मुझे वहां 4500 रुपए महीने की नौकरी मिल गई।

मैंने पापा को बताया कि मुझे नौकरी मिल गई है। इस पर तो घर में बवाल हो गया। पापा ने कहा कि आज तक हमारे घर में किसी लड़की ने नौकरी नहीं की। तुम नौकरी करोगी तो मैं जहर खा लूंगा।

मैं अंदर ही अंदर डर गई। बिस्तर पर पड़ी कई दिन सोचती रही कि क्या करूं। फिर दिमाग में आया कि ऐसे कोई इतनी जल्दी अपनी जान नहीं देता है। तीन दिन बाद मैंने हिम्मत कर पापा से कहा कि आपको जो करना है कर लो, मैं नौकरी करूंगी और कॉलेज जाऊंगी। उस वक्त मां ने पापा को समझाया, क्या समझाया मुझे नहीं पता, लेकिन वे कॉलेज भेजने के लिए राजी हो गए। सच कहूं तो पापा भी चाहते थे कि हम पढ़ाई करें, कॉलेज जाएं, लेकिन आसपास रहने वाले लोगों और रिश्तेदारों के इस कदर दबाव में थे ऐसे फैसले लेने पर मजबूर हो जाते थे।

मैं कॉलेज जाने लगी। एक साल निकल गया। सेकेंड ईयर की बात है, पापा का काम बंद हो गया। घर में पैसे आने बंद हो गए। हालात ऐसे हो गए कि एक-एक किलो आटा आने लगा। मां ने राशन खरीदने के लिए अपनी अंगूठी तक बेच दी। मैंने उस दिन मां को रोते हुए देखा था। वो सीन मेरे दिमाग में बस गया।

तब कॉलेज से छुट्टियां होने वाली थीं। मैंने दीदी से कहा कि क्या हम छुट्टियों में पार्ट टाइम काम कर सकते हैं। घर के पास ही नया मॉल खुला था। हम दोनों बहनें शाम में वहां काम करने के लिए जाने लगीं। तीन महीने में हम दोनों ने 40,000 रुपए कमाए और जब पापा को वो पैसे दिए, तो उस दिन पापा को आइना दिखा।

उन्हें पहली बार लगा जिन बेटियों को वे हर कदम पर रोकते रहे, वो कैसे मुसीबत में ढाल बनकर खड़ी हो गईं।

पापा अब मुझसे थोड़ा ठीक से बात करने लगे। 2015 में मैंने ग्रेजुएशन कर लिया। स्लम एरिया में ही एक एनजीओ की ओर से चलाए जा रहे एक प्रोग्राम में एडमिशन लिया। वहां कम्युनिकेशन स्किल्स सिखाए जाते थे। इंटरकंट्री प्रोग्राम होते थे, विदेश से कई लोग आते थे। मुझे इसका बहुत फायदा हुआ और मल्टीनेशनल टॉय स्टोर में काम मिल गया।

नौकरी के दौरान मैंने देखा कि लोग अपने बच्चों के लिए 20 हजार रुपए तक के खिलौने खरीदते थे। मैं हैरान होती थी ये कौन से बच्चे हैं, जो इतने मंहगे खिलौनों से खेलते हैं। मैं इससे प्रेरित होती थी कि मुझे भी ऐसा बनना है, मुझे भी इनके जैसा दिखना है, मुझे भी ऐसा बोलना सीखना है, उठना-बैठना सीखना है। इसी बीच पापा को डेंगू हो गया। मुझे लगा कि पापा को कुछ हुआ तो हम सड़कों पर आ जाएंगे। लोग हमें अलग नजर से देखने लगेंगे। मुझे किसी तरह पापा को ठीक करना होगा। मैं अपनी ड्यूटी पूरी करने के बाद सीधे अस्पताल चली जाती थी। वहां रातभर पापा की सेवा करती। फिर सुबह काम पर जाती।

15 दिन बाद मुझे भी डेंगू हो गया। अब सारी जिम्मेदारी मां पर आ गई। खैर 15 दिन बाद दोनों ठीक हो गए। मैं बहुत ज्यादा उस दौर को याद नहीं करना चाहती, बहुत मुश्किल भरे हालात थे हमारे।

इसके बाद मैंने अपनी अंग्रेजी पर काम करना शुरू किया। जिस दिन जो नया शब्द सुनती उसे लिख लेती और घर जाकर उसे रट लेती। नए-नए शब्द सुनती, सीखती, उल्टा-सीधा बोलती। कस्टमर के साथ अपनी अंग्रेजी झाड़ देती। ऐसा करते-करते अंग्रेजी बोलना सीख गई। तीन महीने के बाद तो मैंने ऐसा काम किया कि एक महीने में दो-दो लाख रुपए का इन्सेंटिव मुझे मिला।

एक और बात, तब मेरे कई कलीग कार से ऑफिस आते थे। वे मुझसे अक्सर कहते कि कार खरीद लो आप। पर मैं सोचती कि कार खरीदती हूं, तो स्लम एरिया में मेरा सिर छिपेगा, लेकिन मेरा परिवार तो उसी छत के नीचे रहेगा। मुझे उस छत को बदलनी थी।

एक दिन मैंने बहन से कहा कि हमें अब अपना मकान लेना है। किराए के घर में बहुत रह लिए। इसके बाद दोनों बहनें ओवर टाइम करने लगीं। मैं 15-15 घंटे काम करती थी और अच्छा खासा इन्सेंटिव कमाती थी। 2019 की बात है। मुझे पता लगा कि अमेरिका के एक मल्टीब्रांड स्टोर में रिटेल एसोसिएट्स के लिए इंटरव्यू है। मैंने किसी से कुछ पैसे उधार लिए और तत्काल फ्लाइट से सीधे मुंबई पहुंच गई। 6 राउंड में मेरा इंटरव्यू हुआ। इसके बाद मेरा सिलेक्शन हो गया।

मैं शायद शब्दों में बयां नहीं कर पाऊंगी कि मेरे लिए वो कितना बड़ा दिन था। मां-पापा को तो पता ही नहीं चल रहा था कि ये सब कैसे मुमकिन हो गया। उन्हें शायद अंदर ही अंदर ये एहसास हो रहा था कि वे गलत थे।

अब बारी थी अमेरिका के लिए उड़ान भरने की। रास्ते में कुछ देर के लिए पेरिस में फ्लाइट रुकी, तो मैं वॉशरूम में बैठकर जोर-जोर से रोने लगी। बाहर निकली तो किसी ने पूछा कि क्यों रो रही हो? मैंने कहा कि मुझे घर की याद आ रही है, वो आदमी ऐसे चला गया, जैसे उसने मेरी बात ही नहीं सुनी हो।

उस दिन मुझे पता चला कि यहां ऐसे इमोशन्स की कोई जगह नहीं है। लोगों को अपने काम से मतलब है। जब अच्छी खासी सेविंग्स हो गई तो चंडीगढ़ में मैंने 32 लाख रुपए का घर लिया। वो घर मैं पापा के नाम पर लेना चाहती थी, लेकिन डॉक्यूमेंट के चक्कर में नहीं ले सकी, घर मैंने अपने नाम पर लिया और उसकी चाबी पापा को गिफ्ट की। पता है उस दिन पापा की शक्ल देखी नहीं जा रही थी। उनकी आंखों से आंसू बरस रहे थे।

एक साल तक मैं अमेरिका में रही, फिर हेल्थ की वजह से मुझे भारत आना पड़ा। इसके बाद 2021 में फिर से अमेरिका चली गई। अब लौट आई हूं। नई जगह नौकरी मिल गई है। जल्द ही उड़ान भरने वाली हूं।

रुचि जायसवाल ने ये सारी बातें भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से शेयर की हैं

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