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काश! ये मेरी आखिरी रात हो:चींटियों का गुच्छा मां को जख्मी कर रहा था, मैं हिल भी न सकी; PM को चिट्ठी लिखकर दोनों के लिए मौत मांग ली « The News Express

काश! ये मेरी आखिरी रात हो:चींटियों का गुच्छा मां को जख्मी कर रहा था, मैं हिल भी न सकी; PM को चिट्ठी लिखकर दोनों के लिए मौत मांग ली

 

गर्मियों का वक्त था। मां तख्त पर लेटी थीं कि तभी उन्हें शरीर में जलन महसूस हुई। सिर हिलाकर देखा तो पता चला कि चींटियां काट रही हैं। एक-दो नहीं, लाल चींटियों का पूरा गुच्छा शरीर पर जख्म कर रहा था।

मैं बगल में थी, लेकिन कुछ कर नहीं सकी, सिवाय एक-के-बाद एक फोन करने और इससे-उससे गिड़गिड़ाने के। जब तक कोई आया, मां दर्द से कराहती रहीं और मैं बेबसी से।

नीली दीवारों वाले सीलन भरे कमरे में ये बताते हुए अनामिका हंस पड़ती हैं। लाचारगी भरी हंसी। वो हंसी, जिसे सुनकर साथ खिलखिलाने नहीं, बचकर भाग जाने को जी चाहता है। मस्कुलर डिस्ट्रॉफी की मरीज अनामिका मिश्रा ने इसी बीमारी से अपनी मां को मरते देखा और अब अपनी बारी का इंतजार कर रही हैं।

दरअसल, मस्कुलर डिस्ट्रॉफी में शरीर की मांसपेशियां धीरे-धीरे कमजोर होती चली जाती हैं। शुरुआत कमर और पैरों से होती है, फिर धीरे-धीरे दिल तक की मसल्स पर असर होता है, और एक वक्त ऐसा आता है कि वो काम करना बंद कर देता है। लंग्स फेल होने से मरीज की मौत भी हो जाती है।

उदास आवाज में अनामिका कहती हैं- पेरेंट्स जाते हुए बच्चों को लंबी उम्र की दुआ देते हैं। मेरी मां ने मरते वक्त मुझे जहर मंगवाकर खा लेने को कहा ! मेरी मौत ही उनकी दुआ थी।

गंगा के दक्षिणी छोर पर बसे कानपुर शहर की अनामिका को इससे मतलब नहीं कि शहर में कौन-सा नया मॉल खुला है, या फिर पार्क बना है। उन्हें बदलते मौसम से भी फर्क नहीं पड़ता। उन्हें फर्क पड़ता है तो इंतजार से।

साल 2014 से उठने-बैठने में भी लाचार ये युवती नींद आने पर सो नहीं सकती, बल्कि इंतजार करती है कि कोई उसे बिस्तर पर लिटाए। जो नहलाने के लिए आती है, वही मदद कर देती है। अगर उसे आने में वक्त लगे तो गंदी चादर पर ही पड़े रहना होगा। गर्मियों का वक्त था। मां तख्त पर लेटी थीं कि तभी उन्हें शरीर में जलन महसूस हुई। सिर हिलाकर देखा तो पता चला कि चींटियां काट रही हैं। एक-दो नहीं, लाल चींटियों का पूरा गुच्छा शरीर पर जख्म कर रहा था।

मैं बगल में थी, लेकिन कुछ कर नहीं सकी, सिवाय एक-के-बाद एक फोन करने और इससे-उससे गिड़गिड़ाने के। जब तक कोई आया, मां दर्द से कराहती रहीं और मैं बेबसी से।

नीली दीवारों वाले सीलन भरे कमरे में ये बताते हुए अनामिका हंस पड़ती हैं। लाचारगी भरी हंसी। वो हंसी, जिसे सुनकर साथ खिलखिलाने नहीं, बचकर भाग जाने को जी चाहता है। मस्कुलर डिस्ट्रॉफी की मरीज अनामिका मिश्रा ने इसी बीमारी से अपनी मां को मरते देखा और अब अपनी बारी का इंतजार कर रही हैं।

दरअसल, मस्कुलर डिस्ट्रॉफी में शरीर की मांसपेशियां धीरे-धीरे कमजोर होती चली जाती हैं। शुरुआत कमर और पैरों से होती है, फिर धीरे-धीरे दिल तक की मसल्स पर असर होता है, और एक वक्त ऐसा आता है कि वो काम करना बंद कर देता है। लंग्स फेल होने से मरीज की मौत भी हो जाती है।

उदास आवाज में अनामिका कहती हैं- पेरेंट्स जाते हुए बच्चों को लंबी उम्र की दुआ देते हैं। मेरी मां ने मरते वक्त मुझे जहर मंगवाकर खा लेने को कहा ! मेरी मौत ही उनकी दुआ थी।

गंगा के दक्षिणी छोर पर बसे कानपुर शहर की अनामिका को इससे मतलब नहीं कि शहर में कौन-सा नया मॉल खुला है, या फिर पार्क बना है। उन्हें बदलते मौसम से भी फर्क नहीं पड़ता। उन्हें फर्क पड़ता है तो इंतजार से।

साल 2014 से उठने-बैठने में भी लाचार ये युवती नींद आने पर सो नहीं सकती, बल्कि इंतजार करती है कि कोई उसे बिस्तर पर लिटाए। जो नहलाने के लिए आती है, वही मदद कर देती है। अगर उसे आने में वक्त लगे तो गंदी चादर पर ही पड़े रहना होगा। मैं आसपास देखती हूं। दुमंजिला मकान में कई कमरे। हर कमरे से हंसी, टीवी और बातचीत की आवाज आती हुई। कुछ उनके दूर के रिश्तेदार हैं। कुछ ऐसे, जिनके पास किराए के पैसे नहीं। और कुछ इन लोगों के यार-दोस्त।

घर गुलजार रहता है, सिवाए अनामिका के कमरे के। उखड़ते पलस्तर और जूठी थालियों से भरा ये कमरा वो दुनिया है, जहां कोई भी हंसी-मजाक करने या वक्त बिताने नहीं आता। तभी आता है, जब अनामिका फोन करके बुलाएं। जब उन्हें प्यास लगी हो, या खाने का वक्त बीत रहा हो।

साल 2018 में उन्होंने इच्छा मृत्यु यानी यूथेनेसिया की मांग की। लोकल नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति तक को लिखा, लेकिन कहीं से कोई ‘पॉजिटिव’ जवाब नहीं आया। अनामिका याद करती हैं- तब मां जिंदा थीं। बिस्तर पर टुकुर-टुकुर देखते हुए हम दोनों की मौत की दुआ करतीं। तभी मैंने इच्छा मृत्यु की मांग की थी। डिमांड सुन ली जाती तो दर्द खत्म हो जाता।

मौत मांगने की बजाए आपने खुद क्यों नहीं मौत को चुन लिया? मैं जैसे हथौड़ा मारती हूं।

हंसते हुए ही अनामिका बेबसी की तस्वीर खींच देती हैं। कहती हैं- जहर खाने के लिए जहर मंगवाना होगा। फांसी लगाने के लिए फंदा बनाकर चढ़ना होगा। मैं इतनी भी किस्मतवाली नहीं। शरीर थोड़ा भी चलता होता तो कब का मर चुकी होती। ये कहते हुए अनामिका की आवाज जमी हुई है, जैसे हाथ-पैरों के साथ उनके कमरे का वक्त भी जम गया हो।

इसके बाद हमारी मुलाकात होती है वहीं एक कमरे में रहते हर्ष गोयल से। अनामिका के फोन करने पर वे आए तो, लेकिन कैमरे पर बातचीत के लिए राजी नहीं थे। थोड़ी ना-नुकुर के बाद कहते हैं- सुबह-सुबह इनका फोन आ जाए तो कई बार खराब लगता है। गुस्सा भी आता है, लेकिन फिर लगता है कि मदद कर दी जाए। कई बार इन्हें कोई जरूरत पड़े और तभी मेरा या मेरी फैमिली का काम आ जाए तो जाहिर है कि मैं अपनी फैमिली को पहले देखूंगा। तब इन्हें मैनेज करना ही होगा।

हर्ष ये सारी बातें अनामिका के सामने कहते और सांय से निकल जाते हैं। मैं चुपचाप हूं। दो-एक मिनट बाद वही कहती हैं- आपको प्यास लगी हो या चाय पीनी हो तो बताइए! मैं नहीं में सिर हिलाते हुए बाहर आ जाती हूं। उसी हॉल में, जहां पानी और फूल पर फफूंद लग रही है। इस इंतजार में कि कोई आए तो सफाई हो सके।

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