‘पांच-छह साल की मेरी उम्र रही होगी। दो बहनें मुझसे बड़ी थीं। मैं बहनों की फ्रॉक पहन लेता। बहनों की तरह मैं भी गुड़िया लेने की जिद करता। नहीं मिलती तो बहनों की गुड़िया से ही खेलता। जब 10-12 साल का हुआ तो आईने में खुद को देखता और चेहरे पर पाउडर मलता, छुपकर बिंदी-लिपस्टिक लगा लेता। लड़कियों की तरह चलता।
पापा ने देखा तो जमकर पिटाई हुई। मां ने समझाया कि लड़के हो, लड़कों की तरह रहो। गांव में जब बारात आती, बारातियों का स्वागत होता तो मैं ‘लौंडा नाच’ के बीच ही नाचने लगता। चाचा खाट से बांधकर पिटाई करते। पूरा गांव ताना मारता। कोई-कोई हिजड़ा भी कहता। तब पापा ने पढ़ाई के लिए दूसरे शहर भेज दिया। समस्तीपुर से पटना आया तो स्कूल में भी स्टेज पर नाचने लगा। फिर कॉलेज में भी ‘लौंडा नाच’ करने लगा।
यहां भी कॉलेज के लड़कों ने छेड़छाड़ शुरू कर दी। नाच करने जाता तो लड़के ब्लाउज में हाथ डालते। तरह-तरह से परेशान करते। मैं फूट-फूटकर रोता। कॉलेज से निकला तो अलग-अलग मंचों पर ‘लौंडा नाच’ करने लगा, लेकिन किसी ने भी कला के रूप में नहीं सराहा। सबको मुझमें सेक्स ही नजर आता। डर लगा रहता कि कहीं मेरे साथ कुछ गलत न हो जाए। घरवालों ने मेरी शादी कर दी, लेकिन जब लड़की को पता चला कि ‘लौंडा डांस’ करता हूं तो वो अपने मायके चली गई, फिर नहीं लौटी। सोसाइटी में ‘लौंडा नाच’ की कोई इज्जत नहीं है। इसलिए भाग गया।’
ये कहानी रितुराज की है जो अभी केरल में हैं। एक कोकोनट ऑयल कंपनी में काम कर रहे हैं। अभी ‘लौंडा नाच’ से दूर हैं, लेकिन भरतनाट्यम करते हैं। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में लोक नृत्य के रूप में मशहूर ‘लौंडा नाच’ क्यों दम तोड़ रहा है। इसे एक और उदाहरण से समझिए।
‘कतना साटा बुक भईल हो! पांच गो, बस। मरदे खत्मे हो जाई ई कला। जब रोजिए-रोटी न चली तब ई काम कईला के का फायदा। लौंडा के जगह लोग लड़की के देखल चाहत। देख! बंगाल, नेपाल से लड़की आव तारिन सन। जब मंच पर लड़की डांस करी त कोई लड़का के काहे देखल चाही।’
बिहार के भोजपुर जिले के एक गांव में साटा चलाने वाले (गांवों में चलने वाला ऑर्केस्ट्रा) कुछ इस तरह अपनी पीड़ा बता रहे। शादियों का सीजन शुरू हो रहा है, ऑर्केस्ट्रा चलाने वाले कोलकाता, दिल्ली, बेंगलुरु, मुंबई में से ‘लौंडा नाच’ के कलाकारों को बुला रहे हैं।
इज्जत ही नहीं तो ‘लौंडा नाच’ क्यों करेंगे
‘लौंडा नाच’ करने वाले दिल्ली-मुंबई की फैक्ट्रियों में जाकर मजदूरी कर रहे हैं। वहां कोई नहीं जानता कि वे ‘लौंडा नाच’ आर्टिस्ट हैं। रितुराज कहते हैं अब ‘लौंडा नाच’ को कौन पूछता है। ‘लौंडा नाच’ कराने के बाद भी हमें नचनिया ही कहेंगे। बंदकू की गोली से धांय-धांय कर शामियाने में छेद ही नहीं करेंगे, बल्कि मन हुआ तो दोनाली दिखाकर हमें उठा ले जाएंगे और हो सकता है कि हमारा रेप तक हो जाए।
‘लौंडा नाच’ से जुड़े कलाकार ही इस कला से दूर हो रहे हैं। वो ये नाच नहीं करना चाहते। तो क्या बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश की यह कला खत्म हो जाएगी। इस सवाल पर हमने बात की जैनेंद्र ‘दोस्त’ से।
जैनेंद्र ‘दोस्त’ रंगमंच के कलाकार हैं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (JNU) से ‘लौंडा नाच’ और भिखारी ठाकुर पर PhD की है। जैनेंद्र कहते हैं ‘लौंडा नाच’ खत्म तो नहीं हो रहा है, लेकिन कम जरूर हो गया है। कुछ समय पहले ये स्थिति बन रही थी कि DJ के जमाने में ‘लौंडा नाच’ नहीं बचेगा, लेकिन इसी समाज से हम जैसे लोग ‘लौंडा नाच’ को बचाने के लिए काम कर रहे हैं। इसी मकसद से हमने ‘भिखारी ठाकुर रेपेटरी ट्रेनिंग एंड रिसर्च सेंटर’ की स्थापना की है। सेंटर का उद्देश्य ही है भिखारी ठाकुर की विरासत को संजोना।
समाज में हो रहे बदलाव का असर ‘लौंडा नाच’ पर भी साफ दिखता है। ये बदलाव किस स्तर पर है इसे जानने के लिए थोड़ा इतिहास भी जानना पड़ेगा। लेकिन इससे पहले ‘लौंडा नाच’ की तरह देश में होने वाले लोक नृत्यों के बारे में जान लेते हैं। मुगल काल में चलन में था ‘लौंडा नाच’
जैनेंद्र दोस्त बताते हैं कि ‘लौंडा नाच’ पुराना और ऐतिहासिक परफॉर्मेंस है। पुरुषों का औरत बनकर डांस करने का उल्लेख नाट्यशास्त्रों में भी मिलता है। ‘रूप अनुसारिणी’ और ‘जिक्रभ्रूमसार’ में इसकी चर्चा है कि मेल टु फीमेल और फीमेल टु मेल क्रॉस ड्रेसिंग होती थी। ऐतिहासिक रूप से लौंडा नाच का इतिहास 13वीं सदी में मिलता है।
पुरुष ही करते थे नाच
जैनेंद्र अपने शोध ‘नाच, लौंडा नाच बिदेशिया: पॉलिटिक्स ऑफ रिनेमिंग’ में बताते हैं कि मुगल काल में शासकों के दरबार में तवायफों का चलन था। तवायफें राजमहलों, राज दरबार में परफॉर्मेंस देती थीं। माना जाता है कि तवायफों के बाद बाईजी नाच का चलन हुआ। जमींदार, महाजन शादी-विवाह, त्योहार पर बाई जी का नाच करवाते थे। ऊंची जातियों में इसका चलन था। जबकि मिडिल क्लास और गरीब लोगों के बीच नाच पॉपुलर था जिसे पुरुष करते थे।
संस्कृत ड्रामा खत्म होने के बाद उभरे क्षेत्रीय भाषाओं में नाटक
प्रसिद्ध रंगकर्मी और संगीत नाटक एकेडमी अवार्ड से सम्मानित संजय उपाध्याय कहते हैं जब उत्तर भारत से संस्कृत ड्रामा खत्म हो गया और यह दक्षिण भारत की ओर शिफ्ट हो गया तब 12वीं-13वीं शताब्दी से अलग-अलग इलाकों में नाटकों के भिन्न-भिन्न रूप सामने आए। जैसे बिहार के मिथिला क्षेत्र का बिदापत नाच। इसके पहले किर्तनियां नाटक होता था। इसी तरह असम में अंकिया नाच होता था।
छत्तीसगढ़ में नाचा और बंगाल में जतरा। कहीं कृष्ण की भक्ति तो कहीं रास लीला, राम लीला होती थी। यानी इन नाटकों में आध्यात्मिक पक्ष होता था। भिखारी ठाकुर का बिदेशिया भी इनसे प्रभावित था। उनके नाटक विरह प्रधान होते थे। उनके नाटकों में भी नाच का आगमन हुआ।
नाच से कैसे जुड़ा लौंडा शब्द
जैनेंद्र दोस्त कहते हैं कि यह ऊपरी तौर पर देखने में लगता है कि बाई जी के नाच से अलग करने के लिए लौंडा नाच कहा गया, लेकिन ऐसा है नहीं। इसके पीछे कास्ट-क्लास की पॉलिटिक्स रही है। दरअसल, नाच को वल्गर, गंदा बनाने के लिए अगड़ी जाति के लोगों ने इसमें लौंडा शब्द जोड़ दिया। नाच में अधिकतर आर्टिस्ट, संचालक पिछड़ी जातियों से आते हैं। उनके गीत, म्यूजिक, डांस, सब कुछ उनके समुदाय से जुड़ी है। उनके जीवन में जो कुछ घटित होता है उसे ही वे नाच में दिखाते हैं। भिखारी ठाकुर के नाटक ‘गबर घिचोर’ या ‘बेटी बेचवा’ में आप पिछड़ी जातियों को ही पाएंगे। लखदेव राम के ‘घुरवा चमार’ में भी यही देखने को मिलेगा। कुल मिलाकर पुरुषों द्वारा महिलाओं का भेष धर किए जाने वाले नाच को अश्लील बता दिया गया।
लौंडा को गाली के रूप में इस्तेमाल करते हैं लोग
लौंडा का मतलब है किशोरवय लड़का। बिहार, पूर्वी UP में किसी को लौंडा कहा जाना खराब माना जाता है। लौंडा सेक्शुअलिटी को लेकर किया जाने वाला अश्लील कमेंट भी होता है। नाच में पुरुष महिलाओं का भेष धरते हैं इसलिए इन्हें लौंडा नाच कहा जाता है। जैनेंद्र बताते हैं कि नौटंकी, नाच, स्वांग, जतरा, तमाशा, गोटिपुआ आदि में भी लड़के लड़कियों का रूप धरते हैं, लेकिन उन्हें लौंडा नहीं कहा जाता। ये भी देखने वाली बात है कि लौंडा नाच को लड़के ही करते हैं। लेकिन उसके समकालीन दूसरे नाच में अब लड़कियां फीमेल कैरेक्टर का रोल कर रही हैं।
क्या लौंडा नाच बिहार, UP तक ही सीमित है? एक विधा के रूप में इसे किस रूप में देखा जा रहा है। क्या नई पीढ़ी इस कला को अपना रही है? ऐसे सवालों को हम जानेंगे, लेकिन इससे पहले लौंडा नाच की बारीकियों को समझ लें।पहले भी भाले की नोंक पर पैसे लगाकर लौंडा को देते थे दबंग लोग
राकेश कुमार नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) से पासआउट हैं। बिहार के सीवान जिले के रहनेवाले हैं। जिन्होंने भी राकेश को ‘लौंडा नाच’ करते हुए देखा है वो जानते हैं कि चौकी तोड़ ‘लौंडा डांस’ किसे कहते हैं। NSD में रहते हुए उन्होंने ‘लौंडा नाच’ करके ख्याति बटोरी थी। आज वो मुंबई में हैं और कई सीरियल और वेब सीरीज में काम किया है। महारानी पार्ट 1 में उनका एक आइटम डांस था।
नाच छोड़ कर शहरों की ओर होने लगा पलायन
राकेश खुद कहते हैं मेरी पहचान ‘लौंडा नाच’ की वजह से ही है। वो कहते हैं पहले ‘लौंडा डांस’ खूब होता था। लेकिन एक समय ऐसा आया कि इस नाच को कोई पूछता नहीं था। यह विलुप्त होने लगा क्योंकि आर्केस्ट्रा आ गया। आर्केस्ट्रा वाले नेपाल, बंगाल से लड़कियां बुलाने लगे। तय था कि लड़कियां आएंगी तो लोग लड़कों को नहीं बुलाएंगे। लोगों का इंटरेस्ट लड़कियों में होने लगा। धीरे धीरे वल्गिरिटी आने लगी। ‘लौंडा डांस’ का रूप बदलने लगा। साटा, बैनर कम होने लगे। लौंडा नाच के एक-दो ही कलाकार बचे थे। आर्ट खत्म होने लगा। सीनियर कलाकार घर पर बैठ गए। शहर जाकर मजदूरी करने लगे। जिनके पास खेत था, वे खेती-किसानी करने लगे।
बंदूक से शामियाने में छेद करने वाले क्या नहीं करेंगे
राकेश कहते हैं जो सम्मान मिलना चाहिए था, वो नहीं मिला। मैंने देखा है कैसे गांव में दबंग भाले की नोक पर जबरन नाच करवाते थे। बंदूक से गोली चलाकर शामियाने में छेद करते थे। हर तरह से शोषण होता था। ऐसे लोग क्या नहीं कर सकते, सोचा जा सकता है।
दशहरा में लड़की का रोल करता था
राकेश बताते हैं कि जब भी गांव में बारात आती, बैंड बाजा बजता तो मैं नाचने लगता। नाना के यहां था तो जोगिरा में चला जाता था। नाना जी खोजने जाते थे और कान पकड़ कर घर लाते थे। स्कूल में जब पहुंचा, तो सरस्वती पूजा में लौंडा नाच करने लगा। गांव में दशहरा में लड़की का रोल करता था। देखने में अच्छा था, गोरा-चिट्टा था तो मुझे लोग लड़की का रोल दे देते थे।
NSD में मुझे इस कला को जीवंत करने का प्लेटफॉर्म मिला
NSD में मैंने ये सब्जेक्ट उठाया कि बिहार में ये लोक कला खत्म हो रही। जब वहां मैंने लौंडा डांस किया तो लोगों को क्लिक किया। कई लोग देखने आए कि यह क्या होता है। लौंडा नाम ही लोगों को खींच लाता था। तब दिल्ली के लोगों को पता चला कि यह बिहार का आर्ट है। जब फर्स्ट ईयर में था तब साथी कहते कि यार ये क्या चीज है। इतना एनर्जटिक परफॉर्मेंस है। लड़कियों ने भी साथ में डांस किया। ‘महंगाई डायन खाय जात हो…’ पर मेरा लौंडा डांस खूब पॉपुलर हुआ था।
राकेश मुंबई में सीरियल करने में व्यस्त हैं। लेकिन लौंडा डांस के प्रति प्रेम कम नहीं हुआ है। सीवान के दरौली में 7 नवंबर को वो लौंडा नाच करेंगे।
जब भी लौंडा नाच की बात आती है तब भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर के बिदेशिया की चर्चा होती है। बिदेशिया नाटक का स्टाइल क्या है इसे इन पंक्तियों से जानते हैं और फिर आगे बढ़ते हैं। द लिपिस्टक ब्वॉय में दिखेगा लौंडा कलाकारों का दर्द
लौंडा कलाकारों की पीड़ा को ‘द लिपिस्टिक ब्वॉय’ फिल्म में उठाया गया है। इसके निर्देशक हैं अभिनव ठाकुर। अभिनव भी बिहार के रहनेवाले हैं। वो कहते हैं जब फिल्म पर रिसर्च किया तब पता चला कि इस कला से लोग विमुख क्यों हो रहे। रिसर्च में मैंने पाया कि DJ के साउंड पर जो लौंडा नाच होता है वो सही में लौंडा नाच है ही नहीं। लौंडा नाच तो म्यूजिक, डांस और थियेटर का मिला-जुला रूप है।
लौंडा नाच होने तक नहीं उठती थी डोली
अभिनव कहते हैं भिखारी ठाकुर की मंडली के रामचंद्र मांझी (कुछ समय पहले उनका निधन हुआ) से मिला। इसी तरह पटना के कलाकार कुमार उदय सिंह से मिला। तब जाना कि किस तरह वो प्रताड़ित होते हैं। सोसाइटी से सम्मान तो दूर की बात है फैमिली भी सपोर्ट में नहीं खड़ी होती। एक समय ऐसा था जब कहा जाता था कि बेटी की शादी में अनिवार्य रूप से लौंडा नाच होता था। लौंडा नहीं नाचता था तो डोली नहीं उठती थी। अब वो चीजें नहीं रह गई हैं।
अभिनव ठाकुर कहते हैं कुमार उदय लाख ताने सहने, प्रताड़ना झेलने के बाद भी बहादुरी से खड़े हैं। 1998 में गोपालगंज में उनके साथ क्या गंदा काम किया था, इसे हमने फिल्म में दिखाया है। लौंडा कलाकारों के साथ-साथ क्या-क्या होता है यह दिखाया है। गोविंदा करने वाले थे लौंडा का रोल
अभिनव कहते हैं मैंने इस पर जब फिल्म बनाने के बारे में सोची तो कई कलाकारों के पास गया। गोविंदा के पास गया। उन्होंने ध्यानपूर्वक स्क्रिप्ट सुनी। वो फिल्म करना चाहते थे। किसी वजह से उन्होंने न हां कही, न ना। फिल्म को लेकर रितेश देशमुख और श्रेयष तलपड़े भी उत्साहित थे। लेकिन बात नहीं बनी। तब एक सीरियल कलाकार कृष्णा भट्ट ने हामी भरी। लेकिन दो दिनों की प्रैक्टिस में उनकी कमर लचक गई। तब हमने मनोज पटेल को चुना जो बिहार के ही आर्टिस्ट हैं। उन्होंने जोधा अकबर, मुन्ना माइकल सहित कई फिल्मों में काम किया है।
अमिताभ बच्चन ने दी है आवाज
खास बात यह है कि फिल्म में अमिताभ बच्चन ने वॉयस ओवर दिया है। फिल्म को अमिताभ बच्चन के मेकअप आर्टिस्ट दीपक सावंत ने प्रोड्यूस किया है। फिल्म में पटना की किलकारी संस्था के बच्चों का भी रोल है जो लौंडा नाच सीख रहा है। फिल्म OTT पर रिलीज होने वाली है।
द लिपिस्टिक ब्वॉय पटना के कलाकार कुमार उदय की कहानी से प्रेरित है जो लौंडा नाच के लिए जाने जाते हैं। फिल्म में मनोज पटेल ने उनकी भूमिका की है। आइए पहले उदय की कहानी जानते हैं।
लौंडा नाच को अपनी संस्कृति और धरोहर के रूप में देखते हैं: कुमार उदय
भिखारी ठाकुर ने कभी नहीं सोचा था कि हम किसी अवार्ड के लिए काम कर रहे। रामचंद्र मांझी ने निधन से पहले कभी नहीं सोचा था कि हमें पद्मश्री मिलेगा। उन्होंने खुद को कला के लिए समर्पित किया था। ये कहना है कुमार उदय सिंह का। उदय नालंदा के रहनेवाले हैं। पटना में लौंडा नाच से जुड़े हैं। सैकड़ों शो किए हैं। रंगगर्मी संजय उपाध्याय के साथ 150 बार बिदेशिया नाटक किया है।
शादी-ब्याह में लड़कियों का दुपट्टा लेकर नाचता था
उदय कहते हैं मेरे लिए लौंडा नाच गॉड गिफ्टेड है। बचपन से ही नाचता था। लोग कहते थे लौंडा जैसा नाचता है। तब नहीं जानता था कि लौंडा क्या होता है। लोग कहते कि तुम तो चौकी तोड़ नाच करते हो। जब मैं सालभर का था, तभी मां चल बसी थी। इसलिए पापा ही मेरा ख्याल रखते थे। उन्हें पता चला कि लड़की की तरह नाचता है तो खूब डांटा। पापा नहीं चाहते थे कि बेटा नाचे गाए। घर में सारे लोग नौकरी करते थे। वो कहते कि तुम घर में बैठो, हम खिलाएंगे लेकिन ये काम नहीं करो।
गांव से हटाओ नहीं तो नचनिया बन जाएगा
नाच मंडली में शामिल न हो जाऊं इसलिए मुझे पटना भेज दिया गया। मेरे भैया पटना में पढ़ते थे। तब मेरी उम्र सात साल थी। वहां भी स्कूल में लड़की बनकर नाचने लगे। हिंदी गाने पर नाचा। मैया यशोदा गाने पर नाच किया। पाटलिपुत्र स्कूल में जब स्टेज पर लौंडा नाच किया तो गेस्ट के रूप में पहुंचे शिक्षा मंत्री ने कहा कि लौंडा डांस कर रहे हो बहुत अच्छा है। हम सपोर्ट करेंगे। कॉलेज में भी तरंग कॉम्पिटिशन में फर्स्ट प्राइज मिला। तब तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने हमें पुरस्कार दिया।
उदय कहते हैं कुछ समय बाद दिल्ली गया। वहां कई जगहों पर लौंडा नाच किया। प्रोफेशनल कलाकार के रूप में पहचान बनने लगी। दूरदर्शन ने कार्यक्रम में बुलाया। तब वहां शंकर प्रसाद थे। उन्होंने मुझे देखा तो कहा कि बहुत दुबले-पतले हो, कर पाओगे। मैंने कहा रिहर्सल करा के देख लो। जब डांस किया तो खड़े होकर कहा कि अइसने डांसर के जरूरत बा बिहार के।पहली पत्नी नाच, दूसरी पत्नी तुम हो
जब शादी हुई तो पत्नी को पता चला कि साड़ी पहन कर नाचते हैं। उदय कहते हैं मैंने साफ-साफ कह दिया कि जो तुमको चाहिए हम देंगे, पर नाच नहीं छोड़ेंगे। कई बार झगड़ा हुआ। पत्नी घर से भाग गई। कई बार समझौता हुआ। मैं आज भी इस पर अडिग हूं कि चाहें कुछ भी हो जाए, लौंडा नाच करेंगे। उदय कहते हैं मेरे दो बच्चे हैं। बच्चे छोटे हैं। वो कहते हैं पापा साड़ी पहन कर नाचते हैं छी। अच्छा बात नहीं है। बेटे को समझाता हूं कि यह कला है।
इतनी प्रताड़ना झेली कि मन रोता था
उदय कहते हैं मैंने जीवन के हर मोड़ पर प्रताड़ना झेली है। कॉलेज के दिनों में कोई बोलता था कि तुमसे शादी करेंगे। कोई कहता था मेरे साथ चलो। कभी कभी तो मन रोता था। लोग गंदे-गंदे कमेंट करते थे। लोगों ने बहुत छेड़ा, परेशान किया। मेरा जो संघर्ष है उसे ही द लिपिस्टिक ब्वॉय में दिखाया गया है। कॉलेज में मुझसे लड़के जबरदस्ती नचवाते थे। लड़के कहते सेक्सी लग रहे हो। माल बुलाते, दुपट्टा खींचते। लौंडा के गेटअप में स्टेज से नीचे नहीं उतरता था। डर के मारे प्रिंसिपल के ऑफिस में ही कपड़े बदलता।
प्रताड़ना झेली पर नाच नहीं छोड़ा
मैं हमेशा यही सोचता हूं कि भिखारी ठाकुर को भी लोगों ने ऐसे ही पेरशान किया होगा। लौंडा नाच सभ्य तरीके का नाच है लेकिन लोगों ने इसे वीभत्स बना दिया। उदय कहते हैं लौंडा नाच क्लासिकल है, कहीं से वल्गर नहीं है। इसलिए चाहे कुछ भी हो जाए, समाज कितना भी विरोध में आए, लौंडा नाच नहीं छोड़ा।
रामचंद्र मांझी बोले-नौकरी मिली तबे शादी होई
लौंडा कलाकारों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। पूर्णिया में स्कूल में डांस टीचर अमित कुमार बताते हैं कि एक नाच मंडली को बमुश्किल 40 हजार रुपए मिलते हैं। जबकि मंडली के एक-एक लौंडे को 500 से 1000 रुपए तक ही मिलते हैं। ऐसे में कोई इस पेशे में क्यों आएगा। लौंडा नाच के कलाकार दयनीय हालत में हैं। कुमार उदय कहते हैं रामचंद्र मांझी से एक बार मिला और कहा कि सरकार हमलोग पर ध्यान नहीं दे रही। तब रामचंद्र जी ने कहा कि अब के लौंडा नाच करावल चाहत ता। कोई सीखल नईखे चाहत। सरकार नौकरी दिही तबे अब लौंडा कलाकार के शादीओ होखी। नाक में नथ पहनी तो अंदर चला गया, डॉक्टर ने निकाला
जोधा-अकबर, मुन्ना माइकल सहित कई फिल्मों और सीरियल में काम करने वाले मनोज पटेल भी बिहार के हैं। द लिपिस्टिक ब्वॉय में मुख्य किरदार वही निभा रहे हैं। मनोज ने पटना में पढ़ाई-लिखाई की। पटना विश्वविद्यालय से MA किया। DPS में छह साल तक म्यूजिक, डांस टीचर रहे, लेकिन बचपन से लौंडा नाच के प्रति आकर्षण रहा।
मैं तो लौंडा नाच के लिए ही बना हूं
मनोज कहते हैं बेसिकली थियेटर आर्टिस्ट हूं। बचपन से ही मेकअप अट्रैक्ट करता था। बहनों के बीच कांस्ट्यूम लुभाता था। एक बार नाक में नथ पहनने के चक्कर में नथ अंदर चला गया। डाक्टर के पास गया था निकालने। शिवहर में जब छोटे थे, लौंडा डांस वाले कलाकार आते थे। घरवाले से छुप कर जाता था देखने। इन कलाकारों को देखना मुझे अच्छा लगता था। गांव में जब भी मौका मिलता मैं भी लौंडा नाच करता। घर के लोग पीटते। कई वाकये हुए जो दिल को चुभोने वाला था।
गांव से पटना आने के बाद एक संस्था ज्वाइन किया। निर्माण कला मंच से जुड़ा। वहां बिदेशिया नाटक किया। मुझे लोग कहते कि बहुत खूबसूरत दिखता है। मंच लूटने वाला बंदा है।
मांझी द माउंटेनमैन में था लौंडा डांस
मनोज पटेल कहते हैं मांझी द माउंटेनमैन में उनका भी आइटम डांस था। या कहें कि लौंडा डांस था। उस फिल्म में पंकज त्रिपाठी भी थे। मैं और पंकज भैया एक ही कमरे में ठहरे थे। तब पकंज भैया ने कहा था कि मनोज क्या डांस करते हो। लड़कियां तुम्हारा डांस देखकर जल जाएंगी। दुर्भाग्य से वह गाना इस फिल्म में अंतिम समय में हट गया। कहीं-कहीं दिखते हैं लौंडा कलाकार
द लिपिस्टिक बाय में उदय के साथ पूर्णिया के प्रवीण कुमार ने भी काम किया है। प्रवीण कहते हैं कि पूरे पूर्णिया में एक-दो को छोड़कर कोई लौंडा कलाकार नहीं है। सहरसा, कटिहार, पूर्णिया, साहेबगंज, सुपौल कहीं भी अब लौंडा कलाकार नहीं हैं।
कई बार लौंडा कलाकार को लोग किन्नर समझ लेते हैं, लेकिन लौंडा कलाकार किन्नर नहीं हैं। ये नाच पुरुष निभाते हैं। उनके भी बाल-बच्चे होते हैं। यह भ्रांति किस रूप में है इसे समझने के लिए हमने पूर्णिया के डांस टीचर अमित से बात की।
समाज का आईना है लौंडा नाच
अमित बताते हैं कि दक्षिण बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जिसे हम लौंडा नाच कहते हैं उसे ही उत्तर बिहार में नटुआ कहते हैं। दोनों लगभग एक है। कई बार लोग लौंडा को किन्नर समझ लेते हैं जो कि सही नहीं है। लौंडा नाच हमेशा पुरुष कलाकार ही करते हैं। वो खास तरह के गीत-संगीत और नाटक से जुड़े होते हैं। जबकि किन्नर बधईया मांगते हैं। किन्नर में हाय-हाय वर्ड होता है। उनके गीतों में आपसे कुछ मांगने की फरमाइश होती है। जबकि लौंडा नाच समाज के बारे में बात करता है। लौंडा नाच के नाटकों में साहित्य होता है।
पमरिया नाच में भी पुरुष धरते हैं महिला का रूप
अमित लौंडा नाच के अलावा किन्नर का भी किरदार करते हैं। वो कहते हैं मिथिलांचल में पमरिया होते हैं। वो एक लहंगा पहनते हैं। हाथ में डफली लेकर बधाई मांगते हैं। किसी के घर बच्चा होने पर ही जाते हैं। पमरिया कलाकार पुरुष होते हैं। उनका परिधान अक्सर लुंगी होता है। शर्ट पहनते हैं। कपड़े का झोला लेकर चलते हैं। वो जबरदस्ती नहीं मांगते। पमरिया मैथिली और अंगिका में ज्यादा मांगते हैं। उसी भाषा में सोहर गाते हैं।
बंगाल से आए ट्रांसजेंडर को बोल देते हैं लौंडा
अमित कहते हैं आज जो लौंडा नाच हो रहे हैं उनमें मंडली के लोग ट्रांसजेंडर को भी बुला लेते हैं। ये कम पैसे में आ जाते हैं। इसलिए लोगों को भी लगता है कि सारे लौंडा कलाकार ट्रांसजेंडर ही हैं।
जमीन पर बिछे आंचल पर नाचते हैं लौंडा
गांव में अभी भी लौंडा डांस देखने को मिलता है। अमित बताते हैं कि यज्ञ अनुष्ठान के चारों ओर बहुरुपिया के रूप में राम, लक्ष्मण, भोलेनाथ लोग बनते हैं। अनुष्ठान के बीच-बीच में लौंडे नाचते हैं। दशहरा-छठ के अवसर पर भी नाचते हैं। लोग मन्नत मांगते हैं कि पूरा होने पर आंचल में नटुआ नचवाएंगे। औरत आंचल बिछाती है और लौंडा उस पर नाचता है। आरा, सीवान, छपरा में ये बहुत लोकप्रिय है। डरता हूं कि कहीं मर्यादा टूट नहीं जाए
अमित बताते हैं कि लौंडा नाच रेगुलर नहीं होता। अभिनय और नृत्य दोनों होता है। पांच-छह घंटे का सेशन होता है। मेल पर्सन को अटैरेक्ट वाला अभिनय होता है। हाथ और छाती का पोस्चर अधिक करते हैं। उन्होंने नाटकों में भी किन्नर वाला रोल किया है। लेकिन प्राइवेट कार्यक्रम नहीं करते क्योंकि मर्यादा टूटने का डर होता है।
लड़कों का नाचना, लड़कियों का तबला बजाना दोनों हैं विपरीत कार्य
अमित कहते हैं उनके एक सीनियर हैं क्लासिकल वोकल में। उनका कहना है कि लड़कों का नाचना और लड़कियों का तबला बजाना, दोनों का अपने नेचर के विरुद्ध विपरीत कार्य है। इसलिए झेलना पड़ेगा। फैमिली, सोसाइटी के ताने सहने पड़ेंगे।
घंटों नाचने के बाद भी कलाकारों को कुछ नहीं मिलता
अमित कहते हैं लौंड़ा में कमाई कम है थकान ज्यादा है। इसलिए लोग इस कला से दूर हो रहे। अब तो भोजपुरी के द्विअर्थी गानों पर नाचिए हो गया लौंडा नाच। लौंडों के साथ गलत भी हो रहा है। घुट-घुट कर रह रहे। वो पुलिस के पास नहीं जा पा रहे। इसलिए वो रास्ता भी बदल रहे।
खेसारी लाल ने लौंडा नाच को बना दिया हास्यास्पद
वो खेसारी लाल यादव का उदाहरण देते हैं। खेसारी फिल्मों में आने से पहले लौंडा नाच ही करते थे। लेकिन जब फिल्मों में गए तो उन्होंने लौंडा नाच को वीभत्स रूप दे दिया। जो परंपराएं चली आ रहीं थीं उससे अलग होकर अश्लीलता आ गई।
‘नदिया का पार’ में दिखी थी परंपरा
अमित बताते हैं कि पारंपरिक रूप से ही मर्द और औरत की सोसाइटी अलग रही है। मर्द बाहर होते थे तो औरत आंगन में होती थी। हिंदी फिल्म नदिया का पार देखें, उसमे दिखा है कि हीरो मर्दों के बीच नाच रहा है। उसमें लौंडा भी नाच रहा है। जोगी जी धीरे-धीरे, नदी के तीरे-तीरे…यह गाना कोई भूल सकता है क्या। होली के समय औरतों की टोली अलग थी। लड़की महिलाओं के बीच मर्द बनकर नाच रही है। अपने ही बालों को घुमा कर मूंछ बना लिया और लड़के का गेटअप लिया। लड़कियां उससे छेड़खानी भी कर रही हैं। लोगों को लुभाने को पहनते हैं भड़कीली ड्रेस
राकेश कुमार कहते हैं लौंडा नाच आमतौर पर रात में 8 से 9 के बीच शुरू हो जाता है। रात का शो है इसलिए भड़कीली ड्रेस पहनी जाती है। लहंगा, चोली चटक रंगों का होता है। उसमें सितारे जड़े होते हैं। खूब सारा मेकअप होता है। मेकअप कैरेक्टर को लेकर होता है।
विग की जगह पर बालों में लगा लेते थे काला कपड़ा
जैनेंद्र दोस्त कहते हैं कास्टयूम का प्रेजेंटेशन सोसाइटी से आता है। महिलाएं मायके में पल्लू नहीं रखतीं है, ससुराल में रखती हैं। लड़कियां सलवार-समीज पहनती हैं। रामचंद्र मांझी बताते थे कि हम लोगों ने अभावों में नाच शुरू किया था। बाल में काला कपड़ा बांध लेते थे। ऊपर से साड़ी रख लेते थे। लोग जानते थे कि ये लड़की तो है नहीं। इसलिए कला पर आइए। उनका जोर गायकी पर, चलने पर, शब्द पर, भाव पर, कंटेंट पर होता था। रामचंद्र मांझी कहते थे लटक-मटक कर चलना दूसरी चीज है, लेकिन आपके भाव कैसे हैं, शब्द कैसे हैं ये महत्वूर्ण है।
सोशल मैसेज देने वाले होते थे भिखारी ठाकुर के नाटक
जैनेंद्र दोस्त बताते हैं कि कॉस्ट्यूम दो तरह से होता है एक नाटक से पहले और दूसरा नाटक के दौरान। कोई लौंडा सलवार-कुर्ता पहनता है तो कोई साड़ी। जहां धोती की जरूरत हुई वहां धोती भी। नाटक शुरू होने पर अपने रिसर्च से कॉस्ट्यूम होता है। जैसै बिदेशिया को लीजिए। बिदेशी घर से बाहर जाता है तो उसका कांस्टूयम क्या होगा। उसकी पत्नी का कॉस्टूयम क्या होगा। भिखारी ठाकुर का हिस्टोरिकल कैरेक्टर है। एक संत चोगा पहनता था। सोशल लेक्चर देता था। गेरुआ कलर का कपड़ा पहने हुए। ये कैरेक्टर शिक्षा की बात करता। लोगों को जागरूक करने के लिए। मुंह पर सफेद पाउडर पोत कर। उसके कपड़े भी सफेद होते थे। यह सिंबल होता था जस्टिस का।
लौंडा नाच के लिए किसी घराने में ट्रेनिंग नहीं होती
लौंडा नाच में शामिल होने वाले कलाकार किसी घराने में नहीं सीखते। जब कोई नाच मंडली के साथ जुड़ता है तो सीनियर कलाकार ही उसे सिखाते हैं। मंडली में रहते-रहते स्वाभाविक रूप से नाच होने लगता है। राकेश कुमार बताते हैं कि नाच मालिक ही डायरेक्टर होते थे। वो बताते हैं कि हई पाठ हई अदमी करहीए ( ये कैरेक्टर ये लोग करेंगे)। लोगों को चाहिए पतली कमर वाले लौंडे
लौंडा नाच में सामाजिक बदलाव साफ दिखता है। जैसे समाज बदल रहा है, लोगों के खान-पान बदल रहे, नए विचार वाले हैं, म्यूजिक बदल गया है तब लोगों को लटकन-झटकन चाहिए। कुमार उदय कहते हैं कि भिखारी ठाकुर के समय में मजबूत कद काठी वाले लौंडे होते थे। 35-40 से ऊपर के। उनकी मंडली में तो 60-65 वर्ष के लौंडे भी थे। रामचंद्र मांझी 95 वर्ष की उम्र में भी लौंडा नाच करते थे, लेकिन आज पतली कमर वाले लौंडे की मांग है। 17-18 साल के लौंडे चाहिए।
लौंडा नाच केवल नाच नहीं
क्या लौंडा नाच केवल नाच है या एक क्लासिकल आर्ट है। जैनेंद्र दोस्त कहते हैं लौंडा नाच वह है जिसे भिखारी ठाकुर ने सींचा। भिखारी ठाकुर ने इस पर प्रयोग किया है जो कि रामलीला में नहीं किया जा सकता था। वो सीखने के लिए अलग-अलग मंडलियों में जाते थे। लबार का भी काम किया। फिर अपनी मंडली बनाई। पहला नाटक बिरहा बहार जिसे बिदेशिया कहा गया, प्रस्तुत किया। बाद में निर्देशक की भूमिका में आए। चुन-चुन कर लोगों को सिखाना शुरू किया। उनका यही मानना था कि लौंडा नाच केवल नाच नहीं है बल्कि समाज को झकझोरने का एक माध्यम है।
भिखारी ठाकुर के नाटक महिलाओं के सशक्तिकरण पर
जैनेंद्र दोस्त कहते हैं कि आज पूरी भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री महिलाओं के विरोध में हैं। महिला विरोधी गाने बनते हैं। 30-40 साल पहले वुमन सेंट्रिक परफार्मेंस होता था। भिखारी ठाकुर के नाटकों को लीजिए, उनका काम महिलाओं के सशक्तीकरण पर होता था। लड़की बेची जा रही है दहेज के लिए। लड़की को बोझ समझा जा रहा है। कैसे बेचते हैं लोग। खरीद कर शादी करने वाले कितने दोषी हैं यह बेटी बेचवा नाटक से समझ सकते हैं।
बिदेशिया, कौआं हकनी, सती बिहुआ सभी वुमन इम्पावरमेंट पर आधारित रहा है। लेकिन ऐसी बयार बही कि महिला विरोधी गाने बनने लगे। ऐसा दिखाया जाता है कि भोजपुरी क्षेत्र की महिलाएं सेक्स के बिना नहीं रह सकतीं, जबकि ऐसा नहीं है।
कला को जिंदा रखने के लिए कर रहे काम
जैनेंद्र बताते हैं कि लखदेव राम, जोगिंदर राम, बजारी राम ने लौंडा डांस के लिए बहुत कुछ किया है। 1960 के बाद सबने ग्रुप बनाया है। बजारी राम अभी काम कर रहे हैं। लौंडा डांस में अश्लीलता न आए, इसलिए अपने विवेक से ही काम लेना होगा। इन कलाकारों ने हमेशा सोचा कि कुछ ऐसा करना चाहिए जिसमें समाज के मान-मर्यादा की बात हो।
जैनेंद्र ने भी नाच मंडली बनाई। वो कहते हैं सारण, भोजपुर, सीवान आदि जिलों में अभी लौंडा नाच करने वाले कई कलाकार हैं। कुछ ग्रुप तो एक ही नाटक सालभर करते हैं। सती बिहुला, रेशमा चुहड़मल का नाच।
मॉरिशस, फिजी में भी होता है लौंडा डांस
जैनेंद्र दोस्त ने भिखारी ठाकुर के रंगमंच पर आधारित ‘नाच भिखारी नाच’ नाम से डॉक्युमेंटरी बनाई है जो सुर्खियों में रही है। इनके निर्देशन में नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, भूटान के महोत्सवों में भी भिखारी ठाकुर के नाटकों का मंचन हुआ है। जैनेंद्र बताते हैं कि ब्रिटिश काल में माइग्रेट होकर बिहार, UP से लोग मॉरिशस, फिजी देश गए, लेकिन 150 साल के बाद भी वो अपनी जड़ों को भूले नहीं हैं।