श्रीहरि ने भी अपनी लीला का विस्तार करने की ठान ली थी। जिस मार्ग पर देवऋर्षि नारद जी जा रहे थे, उस रास्ते पर भगवान विष्णु जी ने, अपनी माया से, एक ऐसे नगर का निर्माण किया कि जिसका वर्णन शब्दों में करना संभव ही नहीं था।
देवऋर्षि नारद जी की मनःस्थिति निःसंदेह ही ऐसी थी कि उन पर एक साधारण व्यक्ति भी दया-सी कर रहा था। कारण कि संत शिरोमणि अथवा भक्त शिरोमणि, जैसे शब्द उनके प्रभावशाली व तपोमय व्यक्तित्व के लिए बहुत छोटे थे। आप स्वयं ही सोच सकते हैं, कि जिन्हें स्वयं श्रीहरि भी अपने साथ बिठाते हों,
उन्हें प्रणाम करते हों, वो देवऋर्षि नारद जी भला साधारण व्यक्तित्व के स्वामी कैसे हो सकते हैं?
लेकिन आज उन्हें प्रशंसा के दंश ने ऐसा काटा, कि वे इससे नख से सिर तक पीड़ित हो गए। भगवान श्रीविष्णु जी ने उन्हें एक बार भी कठोर शब्दों में, कोई भी सीख नहीं दी। बल्कि मन ही मन यह कहा, कि जो मेरे भक्त के जीवन के लिए श्रेष्ठ व उत्तम हो, और मेरी लीला हो, मैं वही कार्य करूँगा।
देवऋर्षि नारद जी को तो लगा, कि अब श्रीहरि को, मैंने अपनी प्रभुता की सारी गाथा सुना ही दी है। और वे मेरे इस असाध्य कार्य से अतिअंत प्रभावित भी हैं। तो क्यों न अब यहाँ से प्रस्थान किया जाये। यह सोच कर, व श्रीहरि को प्रणाम कर, देवऋर्षि नारद जी विष्णु लोक से वापिस हो जाते हैं।
कहाँ जाना है, किस दिशा की और गमन करना है, उन्होंने कुछ भी निर्धारित नहीं किया था। बस निकलना था और देवऋर्षि नारद जी वहाँ से निकल गए। उनका निकलना कोई ऐसे संदर्भ में भी नहीं था, कि वे कहीं जाकर, भगवान की कथा सुनाने को निकले थे। अपितु अब तो उन्हें अपने स्वामी की कथा नहीं, बल्कि स्वयं की ही कथा सुनाने का नशा-सा था।